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Sunday, October 20, 2013

आत्महत्याओं का शहर बन रही है सुकून की घाटी देहरादून

देहरादून - पहाड़ों में बसे देहरादून को देखकर लगता है कि वो दिन गए जब इसकी पहचान शांति और सुकून की घाटी के रूप में होती थी। 

आज देहरादून में न सिर्फ हत्या,चोरी और लूट जैसे अपराधों का ग्राफ़ लगातार बढ़ता जा रहा है बल्कि बड़ी संख्या में आत्महत्या के सनसनीखेज़ मामले सामने आ रहे हैं।


लगभग एक साल पहले देहरादून में 11वीं में पढ़नेवाले छात्र ने फ़ेसबुक पर खुदकुशी का ऐलान कर मौत को गले लगा लिया था तो लोग सकते में आ गये थे। लेकिन अब आए दिन अख़बार ऐसी सुर्खियों से भरे हुए हैं। क्या दून घाटी आत्महत्या की घाटी के रूप में कुख्यात हो रही है?

किशोर उम्र से लेकर युवा,महिलाएं और बुज़ुर्ग किसी न किसी कारण से आत्महत्या का रास्ता चुन रहे हैं।

दो-तीन पहले देहरादून में एक पुलिस कान्सटेबल ने खुद को गोली मार ली।अपने पीछे वो भरा-पूरा परिवार छोड़ गए। ठीक इसी दिन नौंवी कक्षा की एक छात्रा ने भी परीक्षा में कम नंबर आने के कारण पंखे से लटकरकर जान दे दी।

आत्महत्या के ये सभी मामले अलग-अलग हैं और उनमें कोई संबंध नहीं। लोग तो लोग विशेषज्ञ भी हैरान हैं कि आखिर देहरादून में तेज़ी से बढ़ते आत्महत्याओं के मामलों की वजह क्या है और क्या मौत को गले लगाना इतना आसान हो गया है ।

'हताशा बर्दाश्त करने की शक्ति नहीं'
मनोविज्ञानी सरस्वती सिंह का कहना है, “हमने बच्चों को न कहना नहीं सिखाया है। बहादुर बनने की बजाए वो कमज़ोर हो गए हैं। उन्हें अपना तो पता है कि उन्हें क्या चाहिए लेकिन वो दूसरों का पक्ष नहीं समझते। उनमें हताशा बर्दाश्त करने की शक्ति नहीं रही है।”

उत्तराखण्ड की राजधानी बनने के बाद न केवल देहरादून की आबादी बढ़ी है बल्कि ये शहर तेज़ी से मॉल और उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ़्त में आया है।

लोगों की महत्वाकांक्षाएं बढ़ी हैं और साथ ही हताशा और निराशा भी। फ़ेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटें वर्चुअल दोस्तियां बढ़ा रही हैं लेकिन वास्तविक ज़िंदगियों में लोग समाज से कटे हुए हैं और किशोर पीढ़ी इसकी चपेट में सबसे ज्यादा है।

सामाजिक कारण

आईजी पुलिस, कानून और व्यवस्था, रामसिंह मीणा का कहना है, “आत्महत्या के सामाजिक कारण हैं।खास तौर पर पढ़ाई का दबाव बहुत ज्यादा है। 

कई बार दोस्तों के सर्किल में लोग कुछ ऐसा कर जाते हैं फिर पता चलने पर अपराधबोध में आत्महत्या कर लेते हैं।साथ ही नैतिक मूल्यों में कमी आई है और सहिष्णुता भी बिल्कुल ही खत्म हो गई है।”

आत्महत्या के मामलों पर मनोविज्ञानी सरस्वती सिंह का कहना है कि “आत्महत्या एक क्षणिक आवेग है। अगर वो क्षण निकल जाता है तो वो इंसान सोने की तरह से निखर कर आता है। 

बहुत अच्छा व्यक्तित्व विकसित हो सकता है। उसे अपनी गलती का अहसास हो जाए और फिर उसे समझ में आ जाए कि मैंने ऐसा क्यों करने की सोची।”

देहरादून में आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं लेकिन जागरूकता का अभियान छेड़ने या काउंसलिंग का कोई तरीका विकसित करने की पहल नज़र नहीं आ रही। न स्कूलों में, न घरों में संस्थानों में।

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